जन्माष्टमी भगवान का अवतरण दिवस है। माता देवकी और वसुदेवजी के पुत्ररूप में हरि ने भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी को कंस के कारागार में अवतार लिया। यह कथा संसार में किसी भी कृष्णप्रेमी को बताने की आवश्यकता नहीं। सभी जानते हैं भगवान के सभी भक्त, ऋषि-मुनि, तपस्वी, सिद्धगण, देवर्षि, ब्रह्मर्षि आदि उनके एक दर्शन को जीवनभर लालायित रहते हैं। यदि उनके दर्शन प्राप्त हो गए तो अपना जीवन अपने जीवनभर की साधना को सफल मान लेते हैं जिन भगवान के दर्शन इतने दुर्लभ हैं। जिसके लिए एक जीवन का तप पर्याप्त नहीं है उन भगवान के पिता बनने का सौभाग्य जिसे मिले उसके पुण्य़ आखिर कैसे होंगे ऐसा सौभाग्य पाने के लिए क्या किया होगा वसुदेवजी ने? यह प्रश्न मन में आता है न! भक्तों के मन में यह प्रश्न आना स्वाभाविक ही है। उसी तरह एक और प्रश्न ये भी आता है कि संसार को गीता का ज्ञान देने वाले भगवान के गुरू होने का सौभाग्य सांदीपनि मुनि को कैसे मिल गया।
पुराणों में ये कथाएं आई हैं। हम आज हम आपको वसुदेवजी के पूर्वजन्म की वह कथा सुनाते हैं जिससे उनको भगवान के पिता बनने का सौभाग्य मिला कश्यप ऋषि ने एक बार विशाल यज्ञ का आयोजन किया। ऐसा विशाल यज्ञ जो किसी ऋषि ने इससे पहले अपने सामर्थ्य पर न किया हो। ऐसे विशाल यज्ञ के लिए तो बहुत धन-संपदा की आवश्यकता होती है। कश्यपजी इस बात से चिंतित हो गए कि वे यज्ञ के लिए धनयाचना करने कहां जाएं। फिर ऐसे बड़े यज्ञ के लिए इतने अधिक धन की आवश्यकता होगी कि उसकी याचना में ही न जाने कितने वर्ष व्यतीत हो जाएं।
इसी चिंता में डूबे कश्यपजी को एक विचार आया। उन्होंने राजाओं या कुबेर आदि से धनयाचना के स्थान पर एक ऐसा सरल उपाय सोचा जिससे सारा कार्य भी हो जाए और हर किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े कश्यप वरूणदेव के पास गए। उन्हें अपने यज्ञ की अभिलाषा बताई और उसके लिए सहयोग की विनती की। वरूणदेव से हर प्रकार के सहयोग का आश्वासन मिलने के बाद उन्होंने वरूणदेव से विनती की।
कश्यप बोले- हे वरूणदेव आपकी गोशाला में गायों के रूप में एक से एक रत्न हैं। वे संसार के सभी अभीष्ट प्नदान करने में समर्थवान गाएं हैं। मैं आपसे एक ऐसी दिव्य गौ प्रदान करने की याचना करता हूं जिससे मेरे यज्ञ का कार्य पूर्ण हो सके। मुझे ऐसी एक गाय प्रदान करने की कृपा करें ताकि मेरा यज्ञ कार्य निर्विघ्न पूरा हो सके। इस देवकार्य में आपसे सहयोग की याचना करता हूं। वरूणदेव को कश्यप मुनि का कार्य उचित लगा इसलिए यज्ञ कार्य को संपन्न कराने के लिए एक दिव्य गाय प्रदान कर दी यज्ञ लंबे समय तक चलता रहा उस दिव्य गाय की कृपा से यज्ञ का सारा प्रबंध भी निर्विघ्न होता रहा। कश्यप अत्यंत प्रसन्न थे। वह गोमाता की सेवा करते रहे और उनकी कृपा से यज्ञ पूर्ण करते रहे। आखिरकार यज्ञ निर्विघ्न पूरा भी हो गया। गोमाता की कृपा से कश्यप का यज्ञ पूर्ण हुआ था उन्होंने इतने समय तक गोमाता की सेवा भी की थी. इससे ऋषि के मन में गोमाता के प्रति श्रद्धा, प्रेम और कुछ हद तक लोभ भी जाग गया था।
वह वरूणदेव से गाय तो केवल यज्ञ को पूरा करने के लिए मांगकर लाए थे लेकिन उनके मन में लालच आ गया। वरूणदेव जब भी अपनी गाय लौटाने का संदेशा भिजवाते तो कश्यप कुछ न कुछ बहाना बनाकर टाल देते कश्यप अब उस दिव्य गाय को वापस लौटाने से हिचक रहे थे। यज्ञ पूरा होने के काफी समय बाद भी जब कश्यप ने गाय नहीं लौटाई तो वरूणदेव कश्यप के सामने प्रकट हो गए।
वरूण ने कहा- ऋषिवर आपने गाय यज्ञ पूर्ण कराने के लिए ली थी। वह स्वर्ग की दिव्य गाय है। उद्देश्य पूर्ण हो जाने पर उसे स्वर्ग में वापस भेजना होता है। यज्ञ पूर्ण हुआ अब वह गाय वापस कर दें कश्यप बोले- हे वरूणदेव! किसी तपस्वी को दान की गई कोई वस्तु कभी वापस नहीं मांगनी चाहिए आपके लिए उस गाय का कोई मूल्य नहीं। आप इसे मेरे आश्रम में ही रहने दें। मैं उसका पूरा ध्यान रखूंगा। वरूणदेव ने अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया कि वह उस गाय को इस प्रकार पृथ्वी पर नहीं छोड़ सकते परंतु कश्यप नहीं माने। हारकर वरूणदेव ब्रह्माजी के पास गए और सारी बात बताई। वरूणदेव ने ब्रह्मा से कहा- हे परमपिता! मैंने तो सिर्फ यज्ञ अवधि के लिए गाय दी थी परंतु कश्यप गाय लौटा ही नहीं रहे। अपनी माता की अनुपस्थिति में दुखी बछड़े प्राण त्यागने वाले हैं। आप राह निकालें। ब्रह्माजी वरूण को लेकर कश्यप के आश्रम में आए और बोले- कश्यप तुम विद्वान हो। तुम्हारे अंदर ऐसी प्रवृति कैसे आ रही है, इससे मैं स्वयं दुखी हूं। लोभ में पड़कर तुम अपने पुण्यों का नाश कर रहे हो। वरूण की गाय लौटा दो।
ब्रह्माजी के समझाने पर कश्यप गाय को अपने पास ही रखने के तर्क देने लगे। वह उलटा समझाने का प्रयास करने लगे कि गाय अब उनकी ही संपत्ति है। इसलिए लोभ की कोई बात ही नहीं। ब्रह्माजी क्रोधित हो गए और कहा- लोभ के कारण तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई। ऋषि होकर भी तुम्हें ऐसा लोभ हुआ है। यह पतन का कारण है। तुम्हारे प्राण एक गाय में अटके हैं। मैं शाप देता हूं कि तुम अपने अंश से पृथ्वी पर गौपालक के रूप में जाओ। शाप सुनकर कश्यप को बड़ा क्षोभ हुआ। उन्हें अपराध बोध हुआ और उन्होंने ब्रह्माजी से और वरूणदेव दोनों से क्षमा मांगी। ब्रह्माजी का क्रोध शांत हो गया। वरूण को भी पछतावा हो रहा था कि कश्यप को ऐसा शाप मिल गया। ब्रह्माजी ने शाप में संशोधन कर दिया- तुम अपने अंश से पृथ्वी पर यदुकुल में जन्म लोगे। वहां तुम गायों की खूब सेवा करोगे। स्वयं श्रीहरि तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेकर तुम्हें कृतार्थ करेंगे। कश्यप शाप को वरदान में परिवर्तित होता देखकर प्रसन्न हो गए। उन्होंने ब्रह्माजी की स्तुति की। कश्यप ने ही भगवान श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के रूप में धरती पर जन्म लिया।
